रास्ते लग तो रहे थे आसान ।।। लेकिन जाना बहुत दूर तक था ।।
कुछ तैयारी से जैसे तैसे कदम बढ़ाया मंजिल की तरफ ।।। आगे निकल तो आये लेकिन कमीज थी किसी और की ।।
अँधेरे में उसी को अपनी मानकर हम आगे बढ़ गए ।।। लेकिन कमीज थी पुराने अंधे कारीगर के तजुर्बे से बनी बिलकुल वैसी जैसी वो चाहता था ।।
मानो दूसरा कदम ही था मंजिल की ओर पड़ने लगे ठण्ड के थपेड़े ।।। मेरी कमीज होती तो शायद सह लेती लेकिन कमीज थी किसी और की ।।
अब आगे बढ़ते जाना भी था मुश्किल ।।। और पीछे मुड़ के जाते भी तो कहाँ लगता था मानो पीछे वाला रास्ता तो कभी था ही नही ।।
बस फिर क्या था आकांक्षाओं ने वहीं दम तोड़ दिया क्यूंकि कमीज थी किसी और की ।।
मेरी कमीज थी छोटी लेकिन यकीन था उस पर की इस कमीज से ज्यादा टिक जाती क्यूकी बनी थी वो मेरे भरोसे और मेरे तर्जुबे की डोर से ।।
लेकिन मेरे ही अँधेरे ने मेरे रास्ते छीन लिए क्यूंकि कमीज थी किसी और की ।।
अगर बच भी जाते ठण्ड के थपेड़ो से पा भी लेते मंजिल हो जाती चाहत पूरी फिर भी हार मेरी ही होती ।।
क्यूंकि जीतता तो कोई और क्यूंकि कमीज थी किसी और की ।।
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